गुरु बिना न आत्म-दर्शन न परमात्म-दर्शन
गुज़रते लम्हों में सदियाँ तलाश करता हूँ,
ये मेरी प्यास है,नदियाँ तलाश करता हूँ,
यहाँ लोग गिनाते है ख़ूबियाँ अपनी अपनी,
मैं अपने आप में खामियाँ तलाश करता हूँ
गुरुपूर्णिमा का दिन मुझे मेरे गुरु मेरे पिता का स्मरण कराता है जिन्होंने मुझे उपरोक्त पंक्तियों से जीवन मे अपनी कमियों को तलाशना और उन्ही कमियों पर विजय प्राप्त करना सिखाया। वैसे तो किसी भी तरह का ज्ञान देने वाला गुरु कहलाता है, लेकिन तंत्र-मंत्र-अध्यात्म का ज्ञान देने वाले सद्गुरु कहलाते हैं जिनकी प्राप्ति पिछले जन्मों के कर्मों से ही होती है।मैने तो अपने घर के सामने फुटपाथ पर व्यवसाय करने वाले व्यापारी से भी अनुशासन एवं प्रबंधन सीखा है, अतः वह भी मेरे गुरु हुए। तात्पर्य यह कि गुरु किसी भी दशा और दिशा मे निहित हो सकता है बस आपकी चेतना उन्हे पहचानले ये आवश्यक है।
कठोपनिषद में गुरु का बखान कुछ ईस तरह किया है,
तद-विज्ञाननार्थम सा गुरुं इवाभिगच्छेत,
समित-पनिः श्रोत्रियम ब्रह्म-निष्ठम।
इस वैदिक आदेश का अर्थ है, "पारलौकिक विज्ञान सीखने के लिए, व्यक्ति को अनुशासित उत्तराधिकार में प्रामाणिक आध्यात्मिक गुरु के पास जाना चाहिए, जो पूर्ण सत्य में स्थिर है। दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को गुरु के पास जाना चाहिए।"
गुरु ही शिष्य का मार्गदर्शन करते हैं और वे ही जीवन को ऊर्जामय बनाते हैं। जीवन विकास के लिए भारतीय संस्कृति में गुरु की महत्वपूर्ण भूमिका मानी गई है। गुरु की सन्निधि, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है। क्योंकि गुरु बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन।
वो माँ मे भी ,और पिता मे भी,
वो भाई मे भी ,और सखा मे भी,
वो ज्येष्ठ मे भी और कनिष्ठ मे भी,
वो फकीर मे भी और अमीर मे भी,
वो तुममें भी और मुझमें भी,
गुरु वही जो कुछ सिखलाऐ ,
इसमें कोई भेद न भार,
क्यों ढूंढ रहे हो एक गुरु तुम ,
यहाँ भरा पड़ा संसारl
*सचिन वर्मा*
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